पुरी समन्दर की थी लम्बी सफर, मगर कुछ बाकि रेह गया
केहना था जो किसीसे, वहि सबकुछ बाकि रेह गया
हम मिले, हँसे, गुन्गुनाए पल, होकर बेपरवाह–बेपरवाह
दिन तो ए भी वहि जेसा, लेकिन आज कुछ बाकि रेह गया
तुम्हे छुकर मेहसुस किया कर्तेथे कि मे भी जिन्दा हु कहि
आज हम न जिन्दा, न मृत, लग्ता हे सास कुछ बाकि रेह गया
मिलुँगा एकदिन ओ चाँद से भि, या खो जाउँगा यहि अन्धेरेमे
जिन्दगी ठेहरा–ठेरहा सा, अभि भि तलास कुछ बाहि रेह गया
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